Thursday 4 June 2020

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: मेघ. धर्माराम उर्फ धर्माजी

                  द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में देशी रियासतों ने ब्रिटेन की सरकार को न केवल धन मुहैया कराया बल्कि सैनिक बल भी उपलब्ध करवाया। जोधपुर रिसाला या जोधपुर लांसर्स का नाम इस में विशेष उल्लेखनीय है। मारवाड़ रियासत में उस समय शेरगढ़ एक परगना यानी जिला था, इस परगने के लोग सेना में भर्ती होना अपना गौरव समझते थे। फलतः जब द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ और शेरगढ़ में भर्ती होने लगी तो शेरगढ़ परगने के सर्वाधिक युवक सेना में भर्ती हुए। अन्य युवकों के साथ मेघ. धर्माराम जी का भी 11 मई 1943 में सेना में एनरॉलमेंट हुआ और वे सैनिक ट्रेनिंग में भेज दिए गए। धर्माजी के पिताजी मदाराम जी केतु के रहने वाले थे और मेघवालों के सामाजिक सुधार-आंदोलन के एक अग्रणीय शख्सियत थे। 
                      आवश्यक ट्रेनिंग के बाद इनको इंडियन इन्फेंट्री ब्रिगेड के डिवीज़न के साथ भारत-बर्मा-चीन सीमा पर लड़े जा रहे युद्ध में भेज दिया गया। जहां कभी अचानक धुरी राष्ट्र की सेनाएं आक्रमण करती तो कभी मित्र राष्ट्र की सेनाएं। जापान ने रंगून को अपने कब्जे में ले लिया था और इम्फाल को घेर रखा था। ब्रिटिश सेना, भारतीय ब्रिटिश सेना, अमेरिका व चीन की सेनाएं वहां डटकर मुकाबला कर रही थी। उनका एकमात्र लक्ष्य रंगून को पुनः विजित करना था और जापानी सेना के आक्रमण को रोकना व उन्हें पीछे खदेड़ना था। इसमें भारतीय सेनाएं कामयाब हुई और अंततः जापान को हथियार डालना पड़ा। भूमि पर टैंक और बंदूकों के आक्रमण और वायु से परमाणु बम्ब के आक्रमण का धुरी राष्ट्र की सेनाएं मुकाबला नहीं कर सकी। 
                      इस युद्ध में धर्मा जी और उनके साथी बड़ी बहादुरी से लड़े। इस भयंकर युद्ध में कई सैनिक हताहत हुए और कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। कम्युनिकेशन की व्यवस्थाएं भी डगमगा गयी, कईं दिनों तक सैनिकों को भूखा-प्यासा रहना पड़ा परंतु वे युद्ध मैदान में डटे रहे। एक बार धर्माजी भी दुश्मनों की गोलियों से हताहत हो गए। उनके पैर में कई गोलियां लगी। उनको युद्ध मैदान से हॉस्पिटल ले जाया गया और दीमापुर व डिब्रूगढ़ में इलाज चला। कुछ महीनों से ठीक होने पर वे पुनः मैदान में जा भिड़े। वे सन 1942, 1943, 1944 व सन 1945 की युद्ध अवधि में युद्ध के मैदान में बहादुरी से लड़े। युद्ध समाप्ति के बाद उनको सम्मानित किया गया। उन्हें 1939-1945 का वॉर मैडल/विक्ट्री मैडल, 1939-1945 वॉर स्टार मैडल, बर्मा मैडल नवाजा गया और उनका नाम डिस्पैच में मेंशन किया गया। उन्हें अन्य डेकोरेशन और क्लेसप्स प्रदान कर पुरस्कृत किया गया। उन्हें वहां बुद्ध मठों का अवलोकन करने का भी अवसर मिला।
                      युद्ध समाप्ति के बाद इनकी तैनाती कलकत्ता रही, जहाँ उस समय भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। उन्हें वहां गाँधीजी को सुनने का अवसर मिला और बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के बारे में भी जानकारी मिली। युद्ध-समाप्ति के बाद देश आजाद होने से पहले 27 अप्रैल 1947 को आप सेवा निवृत्त होकर घर आ गए। सन 1947 में ही जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया तो पुनः 12 जुलाई 1948 को आर्टिलरी में भर्ती हो गए और कश्मीर सीमा पर युद्ध रत रहे। कश्मीर के युद्ध समाप्ति के बाद 17 फरवरी 1950 को स्वैच्छिक सेवा निवृति लेकर जोधपुर आ गए और जोधपुर फ़ोर्स की हेड क्वार्टर स्क्वाड्रन में भर्ती हो गए। कुछ अवधि तक इस में रहने के बाद जोधपुर पुलिस में चले गए। जोधपुर पुलिस में जोधपुर शहर की तैनाती के बाद फलोदी थाने में रहे और वहां से भी स्वैच्छिक सेवा निवृति लेकर पुनः सेना में भर्ती हो गए और सन 1962 के भारत-चीन युद्ध में लेह-लद्दाख सीमा पर बहादुरी से जंग लड़ कर भारत को विजय दिलाई। युद्ध-समाप्ति के बाद पुनः स्वैच्छिक सेवा-निवृति लेकर घर आ गए।
                    पाकिस्तान की सीमा पर बढ़ते तनाव को देखकर भारत सरकार ने सेना की भर्ती शुरू की तो धर्माजी  पुनः भर्ती हो गए। सन 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में गडरा में तैनाती रही और पाकिस्तान के बहुत सारे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। बाद में शिमला समझौते के तहत जिसे वापस पाकिस्तान को दिया। युद्ध समाप्ति के बाद धर्माजी पुनः सेवानिवृत्त हो घर आ गए। सन 1962 और 1965 के युद्ध में भी धर्माजी को क्लेप्स, डेकोरेशन और अवार्ड नवाजे गए।
                     थोड़ी अवधि बाद पुनः आर ए सी में भर्ती हो गए और भारत-पाकिस्तान (बांग्लादेश वॉर) में 'ढाका' में युद्धरत रहे और बांग्लादेश को आज़ाद कराया। उसके बाद 1973-74 में वे वापस घर आ गए और सेतरावा में रहने लगे, जहां उनका परिवार पहले ही केतु से जाकर बस चुका था। वहां विभिन्न सामाजिक कार्यों को अंजाम दिया और लोगों को अंधविश्वास और अंध आस्था से मुक्त कराने के अपने मंतव्य में लग गए। लोगों को अस्पताल के महत्व को न केवल समझाते थे, बल्कि कईं बीमारों को खुद के खर्चे से अस्पताल में भर्ती कराते व उनका इलाज कराते। वे युवाओं को अधिक से अधिक सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते रहे और कई युवाओं को सेना में भर्ती भी कराया।
                    सैनिक सेवा के बाद डॉ आंबेडकर की विचारधारा को फैलाने के लिए छोटी-बड़ी गोष्ठियां भी करते रहे और सन 1975 में सेतरावा में डॉ आंबेडकर की पहली जयंती मनाने का आयोजन किया। सन 1979 में गांव में डॉ आंबेडकर पर बहुत बड़ी सभा का आयोजन किया जिसमें दूर दूर के इलाकों यथा जैसलमेर, पोकरण, फलोदी, जोधपुर, दिल्ली व गाजियाबाद आदि कई जगह के ख्यातनाम लोगों ने भाग लिया। जोधपुर के प्रोफ़ेसर के एल ख्वास, प्रसिद्ध अम्बेडकरी व समाज सेवी सर्वश्री एच आर जोधा, पोकरण के हरिराम पंवार, एडवोकेट पुरोहित, दिल्ली से प्रोफेसर एच सी जोशी, स्वरूपचंद आदि प्रमुख थे व जोधपुर विश्वविद्यालय के कई अनुसूचित जाति के जागृत विद्यार्थियों ने भी इस आयोजन में भाग लिया, जिसमें सगरा के खेताराम चौहान, रामदेवरा के गोरधन जयपाल, एका के खींवराज गोगली, थाट के भंवरलाल बारूपाल, देचू के सिद्धाराम चौहान, शिवकिशोर बोहरा, राम सूरत व अन्य कई कॉलेज-विद्यार्थियों ने इस में सरीक होकर इसको ऐतिहासिक बना दिया। उसके बाद जब तक वे वहां रहे नियमित डॉ आंबेडकर जयंती मानते रहे। 
                    बाद में वे जोधपुर आ बसे और वहीं पर उनका देहांत हुआ। आज धर्माराम जी हमारे बीच में नहीं है परंतु उनका, त्याग, बहादुरी और प्रेरणा सभी को प्रेरित करती रहेगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के वीर सैनिकों के साथ हम उनको भी कोटि-कोटि नमन करते है।

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