Saturday 20 June 2020

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: मेघ अचलाराम ग्राम: डेरिया

               द्वितीय विश्वयुद्ध में लाखों जवान और साधारण जन जख्मी हुए और लाखों लोग मारे गए। भारत की इंपीरियल सरकार ने युद्ध में हताहतों की चिकित्सा हेतु मिलिट्री के स्थायी हॉस्पिटल्स के साथ ही साथ सैकड़ों अस्थायी अस्पतालों का प्रबंध किया और ये अस्थायी अस्पताल युद्ध कैम्पों के आस पास ही रखे गए थे। जिन में लाखों बेड्स की व्यवस्था थी।
                      सेना में चिकित्सा सेवा हेतु आर्मी मेडिकल कोर में भी उस समय भर्ती की जाती रही। शेरगढ़ तहसील के डेरिया गाँव के मेघवाल भूरमल का युवा पुत्र अचलाराम एएमसी यानी आर्मी मेडिकल कोर में दिनांक 25. 09. 1942 को भर्ती हुए। उनका नामांकन नम्बर 184837 था। युद्ध समाप्ति के बाद दिनांक 17. 09. 1946 को उन्हें सेवानिवृत कर दिया गया। उसके बाद युवा अचलाराम अपने गांव में आ गए औऱ बाद में सर प्रताप स्कूल जोधपुर में सेवा दी। इसके अतिरिक्त इनके बारे में कोई ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के समय चिकित्सा सेवा का काम भी जोखिम भरा, साहसिक व बहादुरी का था, जिसे युवा अचलाराम ने साहस और धैर्य के साथ निभाया। 
                     द्वितीय विश्वयुद्ध के बहादुर सैनिकों के साथ उनको भी कोटि कोटि नमन!

Monday 15 June 2020

युद्ध अभियान में द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: मेघ. हेमाराम

शेरगढ़ तहसील के तेना गांव के कईं युवक सन 1942 में सेना में भर्ती हुए, जिन्हें इटली, इराक, फ्रांस और अफ्रीका आदि के युद्ध अभियानों में भारतीय सेना के डिवीजन के सैनिक के रूप में भेज दिया गया। जहां उन्होंने बहादुरी से जंग को लड़ा और नाजी जर्मनी की सेनाओं को परास्त किया। इसी दरम्यान भारत की बर्मा सीमा पर भी युद्ध छिड़ गया। उस हेतु नई भर्ती की गई। सन 1943 को शेरगढ़ में हुई सैनिक भर्ती में तेना के युवा मेघ. हेमाराम पुत्र श्री रामाराम मेघवाल भी भर्ती हो गए।
                 हेमाराम और उनके साथियों को आवश्यक प्रशिक्षण के बाद बर्मा अभियान में भेज दिया गया। जहां उन्होंने बहादुरी से दुश्मन को मात दी और भारत को विजय मिली। युद्ध समाप्ति के बाद हेमाराम और उनके साथियों को पदक व डेकोरेशन देकर सम्मानित किया गया।
                     देश आजाद होने से पहले विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था। अतः हेमाराम व उनके कईं साथी सन 1947 मई में सेवानिवृत्त हो कर अपने गांव आ गए, लेकिन ज्यादा दिन घर नहीं रह सके। देश की आजादी के बाद कश्मीर युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध के समय में युवा सैनिक हेमाराम पुनः 1 सितंबर 1948 को (सेवा क्रमांक: 7991392, पायनियर कोर)
पायनियर कॉर्प्स में भर्ती हो गए और भारत-पाक के प्रथम युद्ध (1947-1948) में कश्मीर सीमा पर युद्ध रत रहे।
                      इसके बाद सन 1962 के भारत-चीन युद्ध में बहादुरी से युद्ध को जीतकर वे सेवानिवृत्त हो अपने गांव आ गए और सेवानिवृति का जीवन एक किसान के रूप में बिताया। आज वीर सैनिक हेमाराम हमारे बीच में नहीं है, परंतु उनकी बहादुरी और साहस के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के शूरवीरों के साथ उनको भी कोटि कोटि नमन करते है।

Wednesday 10 June 2020

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: सूबेदार मेघ हरबंसलाल


                 द्वितीय विश्वयुद्ध में जब भारत- बर्मा-चीन सीमा पर युद्ध प्रारम्भ हुआ तो मेघ मेंहगाराम जी भगत के युवा पुत्र हरबंस लाल भी इंडियन पायनियर कोर्प्स में भर्ती हो गए। उस समय पायनियर कॉर्प्स का हेड क्वार्टर मथुरा हुआ करता था। युवा हरबंस लाल मेघ का सेना में दिनांक 30. 10. 1941 को एनरॉलमेंट हुआ और आवश्यक ट्रेनिंग के बाद आपको बर्मा बॉर्डर पर भेज दिया गया। 
                   जब उन सैनिकों को लेकर जहाज हिंद-महासागर से बर्मा जा रहा था तो उनके समुद्री जहाज़ को जापान की फौज ने टॉरपीडो किया था और वे बमुश्किल बचे थे। दुश्मनों से लड़ते हुए सभी सैनिक बर्मा की भूमि पर पहुंच कर युद्ध रत हुए और बहादुरी से लड़कर युद्ध को जीता। हरबंस लाल जी सन 1941 के अंत में युद्ध भूमि पर पहुंचे और उन्होंने सन 1942, 1943, 1944 व 1945 के विभिन्न युद्ध अभियानों में साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया। 
                   बर्मा रोड को जापान ने कब्जे में कर लिया था। इसलिए अमेरिकी सैनिकों द्वारा बनाई जाने वाली नई रोड, जो लीडो से रंगून तक 130 मील की थी, अधिकांशतः आपकी तैनाती इस युद्ध-भूमि में ही रही और बर्मा को इसी वैकल्पिक रास्ते से पुनः विजित करने में कामयाब हुए।
                द्वितीय विश्वयुद्ध में अदम्य साहस और बहादुरी के लिए हरबंस लाल जी को वॉर मैडल/विक्ट्री मैडल--1939-1945, वॉर स्टार मैडल 1939-1945 व बर्मा स्टार मैडल देकर सम्मानित किया गया। युद्ध समाप्ति के बाद स्वतंत्र भारत की सेना में बतौर सैनिक तैनात रहे व जब पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के लिए कश्मीर पर आक्रमण (1947-1948)  कर दिया तो आपकी तैनाती कश्मीर के युद्धक्षेत्र में हो गयी। इस युद्ध में भी आपने शौर्य व बहादुरी का प्रदर्शन किया। जिस हेतु भी उन्हें पुरस्कृत किया गया। उन्हें 'इंडिपेंडेंस मैडल' व 'जम्मू-कश्मीर का पदक' देकर सम्मानित किया गया व राष्ट्रपति को भेजे जाने वाले डिस्पैच में आपका नाम दर्ज किया गया।
                   सेना में मुश्तैदी व कुशल सेवा के लिए सूबेदार रैंक में पदोन्नति दी गई। कश्मीर युद्ध समाप्ति के बाद दिनांक 10 जनवरी 1951 को सूबेदार मेघ हरबंसलाल भगत सेवा से निवृत होकर जालंधर में जा बसे व आर्यसमाज से जुड़ गए। मेघ हरबंस लाल जीवन भर वहां सामाजिक कार्यो में सक्रिय रहे। इसलिए आर्य-समाजी भी उन्हें श्रद्धा से याद करते है। हमें यह भी जानकारी मिली है कि उनके पुत्र डॉ अशोक ने भी अपने पिता की तरह ही सेना में नौकरी की और मेजर रैंक तक पहुंचे।
                आज मेघ हरबंस लाल जी हमारे बीच में नहीं है, परंतु उनका शौर्य व सामाजिक कार्य उनकी याद को सदैव बनाये रखेगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के वीर-सैनिकों के साथ हम उन्हें भी नमन करते है।

Saturday 6 June 2020

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: मेघ. जवाराराम


                         जर्मनी के द्वारा यूरोप में शुरू किये आक्रमण अभियानों ने शीघ्र ही पूरे विश्व को युद्ध की विभीषिका में ला खड़ा कर दिया। पोलैंड पर कब्जा करने के बाद फ्रांस का भी पतन हो गया, ऐसे में ब्रिटेन ही मजबूत पक्ष था, जो धुरी राष्ट्रों के आक्रमणों का जबाब दे सकता था। इसका एक कारण तो यह था कि 60 से अधिक देश ब्रिटेन के उपनिवेश थे और वहां ब्रिटेन का सीधा शासन था। भारत जैसे कुछ अन्य देश भी थे, जो ब्रिटेन के अधीन थे। वे भी इस युद्ध में कूद पड़े। भारत की सेना ब्रिटेन के अधीन थी और वह अपने युद्ध -कौशल व बहादुरी के लिए ख्यातनाम थी। ब्रिटेन ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीय सेना को कईं अभियानों में अलग अलग टुकड़ियों में भेजा।
                      जब यूरोप में युद्ध ने भयानक रूप धारण किया तो ब्रिटेन ने व्यापक स्तर पर सेना में युवकों को भर्ती करना शुरू किया। युद्ध की इसी अवधि के दरम्यान 8 जून 1942 को युवक जवाराराम का भी सेना में नामांकन हुआ। इनके पिताजी का नाम मोडाराम जी मेघवाल था। उस समय भारतीय सेना को यूरोप भेजा जा रहा था। इंडियन इन्फेंट्री ब्रिगेड के कई डिवीज़न वहां तैनात किए गए थे। युवा सैनिक जवाराराम को भी अन्य सैनिक साथियों के साथ ब्रिटेन की भारतीय सेना में भूमध्यसागरीय इलाके में भेज दिया गया। 
                 युवा सैनिक जवाराराम और उनके साथी सैनिक 29 नवम्बर 1942 को युद्ध भूमि में पहुंचे और नाजी सेनाओं से लोहा लेने शुरू किया। ये द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उत्तरी अफ्रीका में चल रहे युद्ध अभियान में 12 मई 1943 तक युद्धरत रहे। इस दरम्यान अन्य छोटे बड़े युद्ध अभियानों में भी भाग लिया। उन्होंने इतालवी युद्ध अभियान, जो सिसली, इटली में 11 जून 1943 से 8 मई 1945 की अवधि के दौरान  हुआ, उस में सिसिली/इटली में युद्ध में भाग लिया था। जवाराराम और उनके साथी ब्रिटेन की कॉमनवेल्थ सेना में दिनांक 29. 11. 1942 से 05. 08. 1945 तक अफ्रीका, इटली और सेंट्रल मेडिटेरेनियन क्षेत्र के विभिन्न युद्ध अभियानों में निरंतर युद्ध भूमि पर डटे रहे। ऐसे बहादुर सैनिकों के युद्ध कौशल से ही मित्र राष्ट्रों को जीत मिली। 
                   अफ्रीका और इटली के युद्ध अभियानों में वीरता और शौर्य के लिए उन्हें अफ्रीका स्टार मैडल और इटली स्टार मैडल देकर सम्मानित किया गया। उन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध 1939-1942 के वॉर मैडल देकर सम्मानित किया गया।
                    द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो जाने के बाद उनकी टुकड़ी भारत वापस आ गई। इधर देश की स्वतंत्रता का आंदोलन तीव्रता से चल रहा था। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया और जवाराराम जी भारतीय सेना के सिपाही के रूप में सेवा में बने रहे। आज़ादी के समय ये भारतीय सेना के सिपाही रहे, इसलिए उन्हें 'स्वतंत्रता पदक/इंडिपेंडेंस मैडल' देकर सम्मानित किया गया।
                  देश की आजादी के बाद ही कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो गया। इनकी टुकड़ी को 01 दिसम्बर 1949 से 11 जनवरी 1960 तक कश्मीर के तनावग्रस्त क्षेत्र में ही तैनात रखा गया। युवा सैनिक जवाराराम जम्मू-कश्मीर मैडल व रक्षा मैडल देकर सम्मानित किया गया। 13 नवम्बर 1960 को गौरवपूर्ण सैन्य सेवा पूरी कर अपने गांव नाथडाउ आ गए और पुश्तैनी खेती के कार्य को करने लगे।
                  द्वितीय विश्वयुद्ध के जांबाज सैनिकों के स्मरण के साथ जवाराराम जी को भी कोटि-कोटि नमन, जिन्होंने अपने साहस, बल, बहादुरी और शौर्य से देश और जाति का नाम ऊंचा उठाया।

Friday 5 June 2020

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: कैप्टन मेघ बेलीराम जी


द्वितीय विश्वयुद्ध के समय मेघ बेलीराम ग्राम रियासी में प्रारंभिक शिक्षा के बाद अपने पिता दूलोराम के साथ खेती-बाड़ी के कार्य में लगे हुए थे। जब सेना में भर्ती की जाने लगी तो युवा बेलीराम 25 अप्रैल 1942 में सेना में नामांकित हो गए। उस समय भारत-बर्मा-चीन सीमा पर जापान आगे बढ़ रहा था और जर्मनी की सेना उनके साथ थी। धुरी राष्ट्रों की सेनाओं का मुकाबला करने के लिए अमेरिका की सेना हिन्द-महासागर होते हुए कलकत्ता पहुंच चुकी थी और उसकी तैनाती बर्मा बॉर्डर पर की जा चुकी थी। जहां सेना 'लेडो से रंगून' तक वैकल्पिक सड़क निर्माण के साथ युद्धरत भी थी।
                    धुरी राष्ट्रों की सेनाओं ने चीन की सेना को खदेड़ते हुए चीन औऱ बर्मा के राजमार्ग को अपने कब्जे में ले लिया था। नैनीताल के पास रामपुर में चीनी सैनिकों को प्रशिक्षित किया गया और उन्हें धुरी राष्ट्रों की सेनाओं को रोकने के लिए और बर्मा को पुनः जीतने के लिए ब्रिटिश भारतीय सेना के कई डिविजन्स के साथ वहां तैनात किया गया। युवा सैनिक बेलीराम की तैनाती भी उसी इंडियन इन्फेंट्री ब्रिगेड में थी, जो बर्मा की सीमा पर युद्धरत थी।
                    युद्ध के दौरान युवा बेलीराम ने साहस एवं शौर्य के साथ दुश्मनों का मुकाबला किया। एक तरह से यह गुरिल्ला वॉर से कम नहीं था। कभी युद्ध रुकता, कभी अचानक किसी भी हिस्से पर आक्रमण हो जाता। युवा सैनिक बेलीराम और अन्य साथियों ने सदैव सजगता एवं शौर्य से युद्ध-मैदान में अपनी बहादुरी दिखाई। सन 1945 में जापानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया व मित्र राष्ट्रों की जीत हुई। इस युद्ध अभियान में उत्कृष्ट बहादुरी और वीरता के लिए बेलीराम को वॉर मैडल/विक्ट्री मैडल 1939-1945, वॉर स्टार मैडल 1939-1945, बर्मा स्टार मैडल व अन्य डेकोरेशन आदि प्रदान कर सम्मानित किया गया। उनका नाम विशेष उल्लेख के साथ डिस्पैच में उल्लेखित किया गया। 
                      बहादुर मेघ बेलीराम ने सदैव बहादुरी और निष्ठा से सैनिक कर्तव्य का पालन किया। उन्हें प्रोन्नत कर अधिकारी बना दिया गया। देश आजाद होने पर वे स्वतंत्र भारतीय सेना के सिपाही हो गए। उन्हें इस अवसर पर स्वतंत्रता मैडल देकर उनकी सैन्य-सेवा का सम्मान किया गया। सन 1947 में ही जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर लिया तो बेलीराम की तैनाती कश्मीर की युद्ध भूमि पर हो गयी। उस युद्ध में भी अदम्य साहस औऱ बहादुरी के लिए उन्हें जम्मू-कश्मीर मैडल 1947-48 देकर सम्मान किया गया। उत्कृष्ट सेवा के लिए उन्हें सैन्य सेवा अवार्ड और डिफेंस मैडल देकर उनकी सैन्य सेवा का सम्मान किया गया। उन्होंने नेफा क्षेत्र में भी भाग लेकर शांति को बहाल कराया। इस हेतु भी उन्हें नेफा डेकोरेशन व पुरस्कार प्रदान किया हमय।
                    उनकी सेवा अवधि में ही 1962 व 1965 में चीन व पाकिस्तान द्वारा किये गए आक्रमणों में बहादुरी से जंग लड़ा और इन दोनों ही युद्धों में भारत की विजय दिलाने में सैनिक-कर्तव्य का निर्वहन किया। बेलीराम एक सैनिक से कैप्टेन के पद तक अपने कौशल व बहादुरी के बल पर पहुंच सके। इन युद्धों में बहादुरी से भाग लेकर वे 16 जनवरी 1969 को सेवा निवृत्त हो गए। उनकी उत्कृष्ट सैन्य-सेवा के लिए 26 जनवरी 1969 को राष्ट्रपति वी वी गिरी ने दिल्ली में उन्हें सम्मानित किया।
                     सेवानिवृति के बाद कैप्टन बेलीराम चंडीगढ़ में स्थायी रूप से बस गए और वहां सामाजिक कार्यों में लोगों को मार्गदर्शन प्रदान करते रहे। कैप्टन बेलीराम का 88 वर्ष की उम्र में चंडीगढ़ में दिनांक 3 जून 2006 को देहावसान हो गया। बहादुर, नेक दिल, अनुशासन प्रिय कैप्टन बेलीराम आज हमारे बीच में नहीं है, परंतु उनकी बहादुरी, अनुशासनप्रियता और युद्ध कौशल के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के सभी सैनिकों के साथ उनको भी कोटि-कोटि नमन, जिन्होंने सदैव देश और जाति का नाम ऊंचा उठाया!

Thursday 4 June 2020

मेघ. पुरखाराम: द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर:-



                         द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान ने इंडिया-बर्मा-चाइना फ्रंट पर इंग्लैंड को बुरी तरह से पछाड़ दिया था। बर्मा और इम्फाल, अरकान व लेडो आदि जगहों से इंग्लैंड को पीछे हटना पड़ा और लगभग 1941-1942 में ये भूभाग जापान के अधीन आ चुके थे। इंग्लैंड उन्हें वापस हथियाने के लिए युद्धरत था, परंतु बर्मा के जंगल की विषम पारिस्थिकी और जलवायु में अंग्रेज सैनिक पस्त हो चुके थे। इंग्लैंड की सहायता में अमेरिका की सेना भी इस बॉर्डर पर आ डटी थी, परंतु उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी। 
           इन विषम परिस्थितियों में मैदानी भूभाग के सैनिक किसी भी दृष्टि से उपयुक्त नहीं थे। यह तथ्य ब्रिटेन को प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किये गए शोध से उसे मालूम थी। अतः इन विषम परिस्थितियों में उसने रेगिस्तानी और पहाड़ी इलाकों के जवानों को भर्ती करना शुरू किया और उन्हें हल्की-फुल्की ट्रेनिंग देकर युद्ध के मैदान में तैनात कर दिया था। सन 1941-1942 की भर्ती में शेरगढ़ के सैकड़ों मेघवाल युवक सेना में भर्ती हो चुके थे और उन में से कई युवक बर्मा बॉर्डर पर डटे हुए थे। कई युवकों को ब्रिटेन ने इटली, फ्रांस और अफ्रीका भेज दिया था।
             अंग्रेजी फौज में कई सैनिक घायल और बीमार होते जा रहे थे। ऐसे में इम्पीरियल सरकार ने सैनिकों की पुनः भर्ती शुरू की। शेरगढ़ के रेगिस्तानी इलाके में यह भर्ती 1943 में कई गयी। जिस में एक बार फिर सैकड़ों मेघ युवक सेना में भर्ती हुए। उस में बालेसर के पुरखाराम पुत्र श्री कानाराम (कनीराम)भर्ती हुए। उन्हें अन्य साथियों के साथ बर्मा बॉर्डर पर भेज दिया गया। जहां उन्होंने अपनी वीरता और साहस का परिचय दिया।
          पुरखाराम जी 11 मई 1943 को सेना में एनरोल हुए और तब से लेकर जब तक जापान से भारत के भूभाग की वापस नहीं लिया तब तक अपने सैनिक साथियों के साथ युद्ध रत रहे।

            इस अभियान में पहले भारत के उत्तर-पूर्वी मोर्चे की रक्षा करने के लिए उस क्षेत्र में जापानी बलों की प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए भारतीय सैनिकों को भेजा गया था, लेकिन जब जापान बर्मा और भारत के भूभाग को कब्जे में कर चुका था, तो अब उन्हें जीतने के लिए ही भेजा गया था, उनकी सहायता में अमेरिका, बर्मा और चीन की सेनाएं भी थी।
        भारतीय सैनिकों ने मित्र राष्ट्र की सेनाओं के सहयोग से जापान को अगस्त 1945 में बर्मा से पूरी तरह से बाहर निकाल दिया और मित्र राष्ट्रों को विजय मिली।  
      . ... 1944 के मॉनसून सीज़न के दौरान उत्तर-वेसर्न बर्मा की पहाड़ियों, दलदल और जंगलों में जब भारतीय और संबद्ध सैनिक बहुत ही विषम और आपत्तिजनक हालात में लड़ रहे थे। जहां उन्हें कई दिनों तक भूखा भी रहना पड़ा और पानी के भी लाले पड़ गए, दूसरी ओर मित्र राष्ट्रों के अन्य सैनिक  अन्य जगह पर युद्धरत थे।चारों तरफ लड़ाई थी, और चाहे वह मध्य और निचला इलाका हो या इम्फाल, अरकान, लेडो, रंगून आदि। सब जगह घनघोर लड़ाई चल रही थी। अंत में अगस्त 1945 में जापानी सेना की अंतिम हार हुई। जापानी सेना के कमांडर ने सरेंडर किया और संधि हुई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बर्मा बॉर्डर पर सन 1945 तक 5 लाख सैनिक केजुल्टी के शिकार हो चुके थे। 
         पुरखाराम जी 18-19 साल की उम्र में सेना में भर्ती हुए और उनको इंडिया-बर्मा-चाइना बॉर्डर पर द्वितीय विश्वयुद्ध में बहादुरी और जज्बे के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी बहादुरी के लिए उन्हें विजयी पदक यानी वॉर मेडल 1939-1945, बर्मा स्टार मेडल व वार1939-1945 के स्टार मेडल से नवाजा गया। देश आजाद होने के बाद 23 दिसम्बर 1950 को उन्हें सेवानिवृति मिली और उसके बाद वे अपने गांव बालेसर दुर्गावता में आकर रहने लगे और खेती-बाड़ी के कार्य में संलग्न हो गए। आज वे हमारे बीच में नहीं है, परंतु उनकी बहादुरी का जज्बा नई पीढ़ी को सदैव प्रेरणा देता है।  ऐसे शूरवीर को कोटि कोटि नमन 🙏

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: मेघ. धर्माराम उर्फ धर्माजी

                  द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) में देशी रियासतों ने ब्रिटेन की सरकार को न केवल धन मुहैया कराया बल्कि सैनिक बल भी उपलब्ध करवाया। जोधपुर रिसाला या जोधपुर लांसर्स का नाम इस में विशेष उल्लेखनीय है। मारवाड़ रियासत में उस समय शेरगढ़ एक परगना यानी जिला था, इस परगने के लोग सेना में भर्ती होना अपना गौरव समझते थे। फलतः जब द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ और शेरगढ़ में भर्ती होने लगी तो शेरगढ़ परगने के सर्वाधिक युवक सेना में भर्ती हुए। अन्य युवकों के साथ मेघ. धर्माराम जी का भी 11 मई 1943 में सेना में एनरॉलमेंट हुआ और वे सैनिक ट्रेनिंग में भेज दिए गए। धर्माजी के पिताजी मदाराम जी केतु के रहने वाले थे और मेघवालों के सामाजिक सुधार-आंदोलन के एक अग्रणीय शख्सियत थे। 
                      आवश्यक ट्रेनिंग के बाद इनको इंडियन इन्फेंट्री ब्रिगेड के डिवीज़न के साथ भारत-बर्मा-चीन सीमा पर लड़े जा रहे युद्ध में भेज दिया गया। जहां कभी अचानक धुरी राष्ट्र की सेनाएं आक्रमण करती तो कभी मित्र राष्ट्र की सेनाएं। जापान ने रंगून को अपने कब्जे में ले लिया था और इम्फाल को घेर रखा था। ब्रिटिश सेना, भारतीय ब्रिटिश सेना, अमेरिका व चीन की सेनाएं वहां डटकर मुकाबला कर रही थी। उनका एकमात्र लक्ष्य रंगून को पुनः विजित करना था और जापानी सेना के आक्रमण को रोकना व उन्हें पीछे खदेड़ना था। इसमें भारतीय सेनाएं कामयाब हुई और अंततः जापान को हथियार डालना पड़ा। भूमि पर टैंक और बंदूकों के आक्रमण और वायु से परमाणु बम्ब के आक्रमण का धुरी राष्ट्र की सेनाएं मुकाबला नहीं कर सकी। 
                      इस युद्ध में धर्मा जी और उनके साथी बड़ी बहादुरी से लड़े। इस भयंकर युद्ध में कई सैनिक हताहत हुए और कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। कम्युनिकेशन की व्यवस्थाएं भी डगमगा गयी, कईं दिनों तक सैनिकों को भूखा-प्यासा रहना पड़ा परंतु वे युद्ध मैदान में डटे रहे। एक बार धर्माजी भी दुश्मनों की गोलियों से हताहत हो गए। उनके पैर में कई गोलियां लगी। उनको युद्ध मैदान से हॉस्पिटल ले जाया गया और दीमापुर व डिब्रूगढ़ में इलाज चला। कुछ महीनों से ठीक होने पर वे पुनः मैदान में जा भिड़े। वे सन 1942, 1943, 1944 व सन 1945 की युद्ध अवधि में युद्ध के मैदान में बहादुरी से लड़े। युद्ध समाप्ति के बाद उनको सम्मानित किया गया। उन्हें 1939-1945 का वॉर मैडल/विक्ट्री मैडल, 1939-1945 वॉर स्टार मैडल, बर्मा मैडल नवाजा गया और उनका नाम डिस्पैच में मेंशन किया गया। उन्हें अन्य डेकोरेशन और क्लेसप्स प्रदान कर पुरस्कृत किया गया। उन्हें वहां बुद्ध मठों का अवलोकन करने का भी अवसर मिला।
                      युद्ध समाप्ति के बाद इनकी तैनाती कलकत्ता रही, जहाँ उस समय भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। उन्हें वहां गाँधीजी को सुनने का अवसर मिला और बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के बारे में भी जानकारी मिली। युद्ध-समाप्ति के बाद देश आजाद होने से पहले 27 अप्रैल 1947 को आप सेवा निवृत्त होकर घर आ गए। सन 1947 में ही जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया तो पुनः 12 जुलाई 1948 को आर्टिलरी में भर्ती हो गए और कश्मीर सीमा पर युद्ध रत रहे। कश्मीर के युद्ध समाप्ति के बाद 17 फरवरी 1950 को स्वैच्छिक सेवा निवृति लेकर जोधपुर आ गए और जोधपुर फ़ोर्स की हेड क्वार्टर स्क्वाड्रन में भर्ती हो गए। कुछ अवधि तक इस में रहने के बाद जोधपुर पुलिस में चले गए। जोधपुर पुलिस में जोधपुर शहर की तैनाती के बाद फलोदी थाने में रहे और वहां से भी स्वैच्छिक सेवा निवृति लेकर पुनः सेना में भर्ती हो गए और सन 1962 के भारत-चीन युद्ध में लेह-लद्दाख सीमा पर बहादुरी से जंग लड़ कर भारत को विजय दिलाई। युद्ध-समाप्ति के बाद पुनः स्वैच्छिक सेवा-निवृति लेकर घर आ गए।
                    पाकिस्तान की सीमा पर बढ़ते तनाव को देखकर भारत सरकार ने सेना की भर्ती शुरू की तो धर्माजी  पुनः भर्ती हो गए। सन 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में गडरा में तैनाती रही और पाकिस्तान के बहुत सारे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। बाद में शिमला समझौते के तहत जिसे वापस पाकिस्तान को दिया। युद्ध समाप्ति के बाद धर्माजी पुनः सेवानिवृत्त हो घर आ गए। सन 1962 और 1965 के युद्ध में भी धर्माजी को क्लेप्स, डेकोरेशन और अवार्ड नवाजे गए।
                     थोड़ी अवधि बाद पुनः आर ए सी में भर्ती हो गए और भारत-पाकिस्तान (बांग्लादेश वॉर) में 'ढाका' में युद्धरत रहे और बांग्लादेश को आज़ाद कराया। उसके बाद 1973-74 में वे वापस घर आ गए और सेतरावा में रहने लगे, जहां उनका परिवार पहले ही केतु से जाकर बस चुका था। वहां विभिन्न सामाजिक कार्यों को अंजाम दिया और लोगों को अंधविश्वास और अंध आस्था से मुक्त कराने के अपने मंतव्य में लग गए। लोगों को अस्पताल के महत्व को न केवल समझाते थे, बल्कि कईं बीमारों को खुद के खर्चे से अस्पताल में भर्ती कराते व उनका इलाज कराते। वे युवाओं को अधिक से अधिक सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते रहे और कई युवाओं को सेना में भर्ती भी कराया।
                    सैनिक सेवा के बाद डॉ आंबेडकर की विचारधारा को फैलाने के लिए छोटी-बड़ी गोष्ठियां भी करते रहे और सन 1975 में सेतरावा में डॉ आंबेडकर की पहली जयंती मनाने का आयोजन किया। सन 1979 में गांव में डॉ आंबेडकर पर बहुत बड़ी सभा का आयोजन किया जिसमें दूर दूर के इलाकों यथा जैसलमेर, पोकरण, फलोदी, जोधपुर, दिल्ली व गाजियाबाद आदि कई जगह के ख्यातनाम लोगों ने भाग लिया। जोधपुर के प्रोफ़ेसर के एल ख्वास, प्रसिद्ध अम्बेडकरी व समाज सेवी सर्वश्री एच आर जोधा, पोकरण के हरिराम पंवार, एडवोकेट पुरोहित, दिल्ली से प्रोफेसर एच सी जोशी, स्वरूपचंद आदि प्रमुख थे व जोधपुर विश्वविद्यालय के कई अनुसूचित जाति के जागृत विद्यार्थियों ने भी इस आयोजन में भाग लिया, जिसमें सगरा के खेताराम चौहान, रामदेवरा के गोरधन जयपाल, एका के खींवराज गोगली, थाट के भंवरलाल बारूपाल, देचू के सिद्धाराम चौहान, शिवकिशोर बोहरा, राम सूरत व अन्य कई कॉलेज-विद्यार्थियों ने इस में सरीक होकर इसको ऐतिहासिक बना दिया। उसके बाद जब तक वे वहां रहे नियमित डॉ आंबेडकर जयंती मानते रहे। 
                    बाद में वे जोधपुर आ बसे और वहीं पर उनका देहांत हुआ। आज धर्माराम जी हमारे बीच में नहीं है परंतु उनका, त्याग, बहादुरी और प्रेरणा सभी को प्रेरित करती रहेगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के वीर सैनिकों के साथ हम उनको भी कोटि-कोटि नमन करते है।

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर: मेघ अचलाराम ग्राम: डेरिया

               द्वितीय विश्वयुद्ध में लाखों जवान और साधारण जन जख्मी हुए और लाखों लोग मारे गए। भारत की इंपीरियल सरकार ने युद्ध में हताहतों की...