Thursday 4 June 2020

मेघ. पुरखाराम: द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के शूरवीर:-



                         द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान ने इंडिया-बर्मा-चाइना फ्रंट पर इंग्लैंड को बुरी तरह से पछाड़ दिया था। बर्मा और इम्फाल, अरकान व लेडो आदि जगहों से इंग्लैंड को पीछे हटना पड़ा और लगभग 1941-1942 में ये भूभाग जापान के अधीन आ चुके थे। इंग्लैंड उन्हें वापस हथियाने के लिए युद्धरत था, परंतु बर्मा के जंगल की विषम पारिस्थिकी और जलवायु में अंग्रेज सैनिक पस्त हो चुके थे। इंग्लैंड की सहायता में अमेरिका की सेना भी इस बॉर्डर पर आ डटी थी, परंतु उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी। 
           इन विषम परिस्थितियों में मैदानी भूभाग के सैनिक किसी भी दृष्टि से उपयुक्त नहीं थे। यह तथ्य ब्रिटेन को प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किये गए शोध से उसे मालूम थी। अतः इन विषम परिस्थितियों में उसने रेगिस्तानी और पहाड़ी इलाकों के जवानों को भर्ती करना शुरू किया और उन्हें हल्की-फुल्की ट्रेनिंग देकर युद्ध के मैदान में तैनात कर दिया था। सन 1941-1942 की भर्ती में शेरगढ़ के सैकड़ों मेघवाल युवक सेना में भर्ती हो चुके थे और उन में से कई युवक बर्मा बॉर्डर पर डटे हुए थे। कई युवकों को ब्रिटेन ने इटली, फ्रांस और अफ्रीका भेज दिया था।
             अंग्रेजी फौज में कई सैनिक घायल और बीमार होते जा रहे थे। ऐसे में इम्पीरियल सरकार ने सैनिकों की पुनः भर्ती शुरू की। शेरगढ़ के रेगिस्तानी इलाके में यह भर्ती 1943 में कई गयी। जिस में एक बार फिर सैकड़ों मेघ युवक सेना में भर्ती हुए। उस में बालेसर के पुरखाराम पुत्र श्री कानाराम (कनीराम)भर्ती हुए। उन्हें अन्य साथियों के साथ बर्मा बॉर्डर पर भेज दिया गया। जहां उन्होंने अपनी वीरता और साहस का परिचय दिया।
          पुरखाराम जी 11 मई 1943 को सेना में एनरोल हुए और तब से लेकर जब तक जापान से भारत के भूभाग की वापस नहीं लिया तब तक अपने सैनिक साथियों के साथ युद्ध रत रहे।

            इस अभियान में पहले भारत के उत्तर-पूर्वी मोर्चे की रक्षा करने के लिए उस क्षेत्र में जापानी बलों की प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए भारतीय सैनिकों को भेजा गया था, लेकिन जब जापान बर्मा और भारत के भूभाग को कब्जे में कर चुका था, तो अब उन्हें जीतने के लिए ही भेजा गया था, उनकी सहायता में अमेरिका, बर्मा और चीन की सेनाएं भी थी।
        भारतीय सैनिकों ने मित्र राष्ट्र की सेनाओं के सहयोग से जापान को अगस्त 1945 में बर्मा से पूरी तरह से बाहर निकाल दिया और मित्र राष्ट्रों को विजय मिली।  
      . ... 1944 के मॉनसून सीज़न के दौरान उत्तर-वेसर्न बर्मा की पहाड़ियों, दलदल और जंगलों में जब भारतीय और संबद्ध सैनिक बहुत ही विषम और आपत्तिजनक हालात में लड़ रहे थे। जहां उन्हें कई दिनों तक भूखा भी रहना पड़ा और पानी के भी लाले पड़ गए, दूसरी ओर मित्र राष्ट्रों के अन्य सैनिक  अन्य जगह पर युद्धरत थे।चारों तरफ लड़ाई थी, और चाहे वह मध्य और निचला इलाका हो या इम्फाल, अरकान, लेडो, रंगून आदि। सब जगह घनघोर लड़ाई चल रही थी। अंत में अगस्त 1945 में जापानी सेना की अंतिम हार हुई। जापानी सेना के कमांडर ने सरेंडर किया और संधि हुई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बर्मा बॉर्डर पर सन 1945 तक 5 लाख सैनिक केजुल्टी के शिकार हो चुके थे। 
         पुरखाराम जी 18-19 साल की उम्र में सेना में भर्ती हुए और उनको इंडिया-बर्मा-चाइना बॉर्डर पर द्वितीय विश्वयुद्ध में बहादुरी और जज्बे के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी बहादुरी के लिए उन्हें विजयी पदक यानी वॉर मेडल 1939-1945, बर्मा स्टार मेडल व वार1939-1945 के स्टार मेडल से नवाजा गया। देश आजाद होने के बाद 23 दिसम्बर 1950 को उन्हें सेवानिवृति मिली और उसके बाद वे अपने गांव बालेसर दुर्गावता में आकर रहने लगे और खेती-बाड़ी के कार्य में संलग्न हो गए। आज वे हमारे बीच में नहीं है, परंतु उनकी बहादुरी का जज्बा नई पीढ़ी को सदैव प्रेरणा देता है।  ऐसे शूरवीर को कोटि कोटि नमन 🙏

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